मुख्य केंद्र - बाड़मेर
नीले एवं लाल रंग का प्रयोग अधिक किया जाता है
ज्यामितीय अलंकरण अधिक बनाये है जो तुर्की शैली का प्रभाव है
मुख्य केन्द्र - बाड़मेर
काले व कत्थई रंग का अधिक प्रयोग किया जाता है
काले व लाल रंग का प्रयोग अधिक किया जाता है
इसमे लट्ठा व मलमल पर छपाई की जाती है
मुन्ना लाल गोयल ने इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध किया था
प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है
बगरू प्रिंट का आंगन (पृष्ठभूमि) हरापन लिए होती है
इसमे बेलबूटे की छपाई की जाती है
मुख्य केंद्र - आकोला (चितौड़गढ़)
मुख्य केंद्र - चितौड़गढ़
गाड़िया लौहार की महिलाओं के कपड़े इसी प्रिंट में बनाये जाते है
मुख्य केंद्र - जयपुर
इसे Tie & Die कहा जाता है
मुख्य केंद्र - जयपुर, पाली
लड़के के जन्म पर पिला पोमचा तथा लड़की के जन्म पर गुलाबी पोमचा ओढा जाता है
मुख्य केंद्र - जोधपुर
मुख्य केंद्र - आकोला (चितौड़गढ़)
रँगाई छपाई में जिस स्थान पर रंग नही चढ़ाना हो उसे लुई या लुगदी से दबा देते है यही लुगदी या लुई जैसा पदार्थ ‘दाबु’ कहलाता है क्योंकि यह कपड़े के उस स्थान को दबा देता है जहाँ रंग नही चढ़ाना होता।
सवाई माधोपुर में मोम का,
बालोतरा में मिट्टी का,
सांगानेर व बगरू में गेंहू के बिंधण का दाबु लगाया जाता है
मुख्य केंद्र- कैथून (कोटा), मांगरोल (बारां)
चौकोर डिजाइन व आकर्षक रंगों वाली साधा साड़ी होती है जिस पर 300 वर्ग (चौकोर आकृतियों) छपी होती है
जालिमसिंह झाला इस कला में दक्ष मंसूर अहमद नामक बुनकर को हैदराबाद से लेकर आए थे एवं मंसूर अहमद ने ही इस कला की शुरुआत की थी। इसी कारण इस कला को मंसुरिया कला भी कहा जाता है
मुख्य कलाकार - जैनब
जयपुर एवं पाली
श्रावण की तीज पर पहना जाता है
प्रकार - राजशाही, प्रतापशाही एवं समुन्द्रलहरी
जोधपुर
लहरिया की रेखाएं जब आड़ी काटती है तो उसे मोठड़ा कहते है
मोठड़ा विवाहोत्सव पर पहनी जाती है
पीला पोमचा - पुत्र की प्राप्ति पर ओढा जाता है
गुलाबी पोमचा - पुत्री प्राप्ति पर ओढा जाता है
दुल्हन की ओढ़नी को पंवरी कहते है
चीड़ का पोमचा - हाडौती की विधवा महिलाएं पहनती है