मित्रो हमने ये टॉपिक इस प्रकार तैयार किया है
इसमे आपको भक्ती आंदोलन के कवि
भक्ति आंदोलन के पुराने प्रश्न , भक्ति आंदोलन की विशेषताएं आदि को हमने कवर किया है इसको पढ़ने के बाद आपको कुछ भी अलग से नोट्स या कोई बुक देखने की जरुरत नही होगी यह उन सभी एग्जाम को कवर किया है जैसे rpsc ओर upsc की तरफ से एग्जाम आयोजित होते हो ओर हमने इससे पूर्व मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अन्य टॉपिक भी कवर किये है

भक्ति आंदोलन
- भक्ति शब्द बना – धृ धातु से
- जिसका अर्थ – धारण करने योग्य
- – प्रत्येक धर्म के 02 पहलु होते है
- एक तो बाहरी ओर दूसरा आन्तरिक
- आंतरिक पहलू का संबंध – अध्यात्म से होता है
- इसलिये आध्यात्मिक पहलू को रहस्यवाद भी कहते है
- उपरोक्त आधार पर ही धर्म को 02 भागो में बांटा जाता है
- सगुण
- निर्गुण
- भक्ति के लिए – प्रपत्ति शब्द का भी प्रयोग किया गया है
- जिसका अर्थ – अपना सबकुछ ईश्वर को समर्पित करना
- संसार मे प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का मूल उद्देश्य – मोक्ष प्राप्त करना है
- मोक्ष शब्द से तात्पर्य – जीवन मरण के चक्र से मुक्त हो जाना
- मोक्ष प्राप्ति के 03 मार्ग बताए गए
- ज्ञानमार्गी – इसकी जानकारी उपनिषदों से प्राप्त होती है
- कर्ममार्ग – इसकी जानकारी गीता से प्राप्त होती है
- भक्ति मार्ग – भक्ति शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतर उपनिषद से प्राप्त होता है
- भक्ति आंदोलन की शुरुआत – 8 वी शताब्दी में दक्षिण भारत से मानी गयी है
- दक्षिण भारत मे अलवार (वैष्णव भक्त ) एव नयनार संतो ( शिव भक्त ) के द्वारा वैष्णव एवं शैव धर्म का प्रचार भारत मे जैन एव बौद्ध धर्म के विरुद्ध प्रारंभ हुआ
- इसकी पृष्ठभूमि शंकराचार्य ने तैयार की थी
- दक्षिण भारत मे सर्वप्रथम भक्ति आंदोलन के प्रेणता रामानुजाचार्य (1017-1137 ई ) थे
- 12 वी शताब्दी में रामानन्द ने भक्ति को उत्तर भारत में लेकर आये थे
- 15वी एवं16 वी शताब्दी में भक्ति संस्कृति को कबीर, नानक, वल्लभाचार्य, चैतन्य, मीराबाई आदि संतो ने पुनर्जीवित किया
- इन सभी सन्तो ने क्षेत्रीय भाषा, साहित्य एव संस्कृति का विकास किया क्योंकि अपनी वाणी को उसी भाषा मे लिखा जिसे उनके भक्त समझते थे
- इन सभी भक्ति संतो ने सूफी संतों के समान मानववाद पर बल दिया था
सगुण भक्ति आंदोलन
- सगुण भक्ति का अर्थ – अपने आराध्य के रूप, गुण, तथा आकार की कल्पना कर साकार मानवीय रूप में विश्वास करना
- सगुण काव्यधारा में ईश्वर के साकार स्वरूप की लीलाओं का गुणगान होता है
- इसमें विष्णु के अवतारों यथा राम एवं कृष्ण की महिमा का गुणगान हुआ तथा उन्ही की आराधना पर केंद्रित है
- सगुण भक्ति धारा को वल्लभाचार्य, चैतन्य, मीराबाई, सूरदास आदि प्रमुख सन्तो ने अपने उपदेशों के माध्यम से जनजन तक पहुंचाया
निर्गुण भक्ति – भक्ति आंदोलन
- निर्गुण भक्ति का संबंध ईश्वर के निराकार स्वरूप की उपासना से है
- निर्गुण शब्द का अर्थ – बिना लक्षण है
- यह ईश्वर के प्रति पूर्ण भक्ति की एक अव्यक्त अभिव्यक्ति है
- कबीर, गुरुनानक, रैदास, दादूदयाल आदि प्रमुख सन्तो ने निर्गुण भक्ति धारा के माध्यम से लोगो के अंदर वैयक्तिक साधना की ज्योति जलाई
अलवार भक्ति आंदोलन
- अलवार शब्द से तात्पर्य – ज्ञानी व्यक्ति
- अलवार सन्त एकेश्वरवादी थे
- इनका मानना था की भगवान विष्णु की भक्ति एवं पूजा से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है
- इन अलवार संतो की कूल संख्या – 12 थी
- जिनमे प्रमुख – नम्मालवार, मधुरकवि, अंडाल (एकमात्र स्त्री संत)
- अलवार संतो के एक मुख्य काव्य संकलन ‘नालायीरादिव्यम प्रबंधन का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था
- इस परंपरा की सबसे बड़ी विशिष्टता इसमे स्त्रियों की उपस्थिति थी
- अंडाल नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत व्यापक स्तर पर गाये जाते थे
नयनार
- दक्षिण भारत मे शिव भक्तों को नयनार कहा गया
- इनके संतो की कुल संख्या – 63 थी
- जिनमें प्रमुख – तिरुणावककरश, मणिक्कावचगर, सुंदर मूर्ति, तिरुज्ञान सम्बदर
- नयनार भक्ति संतो के गीत – देवाराम कहलाये
- नयनारो में कराइक्कल अममियार स्त्री शिवभक्त थी जिसने अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु तपस्या का मार्ग अपनाया
- अप्पार या तिरुणावककरश तमिलनाडु के 6वी सदी के नयनार संत थे इन्होंने पल्लव शासक महेंद्रवर्मन को शैव धर्म मे दीक्षित किया
Note- अलवार एवं नयनार संतो की रचनाओं को वेद जितना महत्वपूर्ण बताकर इस परंपरा को सम्मानित किया गया
- संत अप्पर, संत सुन्दरर आदि संत कवियों के भजनों को मन्दिरो में अनुष्ठानों के समय गाया जाता था और साथ ही इन सन्तो की प्रतिमा की भी पूजा की थी
त्यागराज
- कर्नाटक संगीत के महान ज्ञाता थे
- ओर राम भक्ति शाखा के प्रमुख संत थे
अन्नामचार्य
- जन्म – 1408 ई
- दक्षिण भारत के पहले संगीतज्ञ थे जिन्होंने संकीर्तन की रचना की
पुरन्दरदास
- इनको कर्नाटक संगीत का जनक माना जाता है
- हरिदास सम्प्रदाय की स्थापना से पूर्व एक व्यापारी थे
- तथा इन्हें लोग श्रीनिवासन नायक के नाम से जानते थे
- दक्षिण भारत के कर्नाटक में 16वी शताब्दी में दासकुट आंदोलन चलाया था
भक्ति आंदोलन और सूफी
- 15वी 16 वी शताब्दी के प्रारंभ में भक्ति आंदोलन के साथ साथ सूफी आंदोलन भी चरम पर था
- भक्ति और सूफी दोनों आंदोलनो ने समाज मे प्रचलित मूर्तिपूजा, अंधविश्वास, बाह्याडंबर, रीतिरिवाज, अनुष्ठानिक विधियों का जहाँ तक एक तरफ विरोध किया वही दूसरी तरफ एकेश्वरवाद पर जोर दिया
- भक्ति आंदोलन ने हिन्दू धर्म मे विद्यमान जटिलताओं को दूर करने का प्रयास किया जाता था
- भक्ति ओर सूफी संतों ने हिंदुत्व एवं इस्लाम के मूलभूत सिद्धान्तों की बेहतर समझ उत्पन की तथा इस तथ्य पर बल दिया कि उनमें बहुत समानता है
- इस प्रकार दोनों ने हिन्दू एव मुस्लिम के बीच विद्यमान खाई को पाटने का प्रयास किया था
- भक्ति आंदोलन दक्षिण भारत के संदर्भ में 6 वी सदी में प्रारंभ हुआ तब इस्लाम का उदय नही हुआ था परंतु मुस्लिम धर्म में धर्मसुधार आंदोलन सूफीवाद के रुप में ईरान से प्रारंभ हुआ भारत मे 12वी सदी में आया अतः दोनों धर्म सुधार आंदोलन स्वतंत्र रूप से चले परन्तु दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया धार्मिक कट्टरता दूर दूर कर हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया इस समन्वय का सर्वोच्च शिखर कबीर, गुरुनानक एवं अकबर की नीतियों के रूप में प्रस्तुत हुआ
वीर शैव या लिंगायत
- 12 वी शताब्दी में कर्नाटक क्षेत्र में कल्याणि के कलचुरी नरेश विज्जल के मंत्री बसव (बसवन्ना) ने लिंगायत सम्प्रदाय या वीर शैव की स्थापना की थी
- वह एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे
- कहा जाता है की उनका जन्म शैव धर्मं के पुनरुद्धार के लिए हुआ है
- बसव पुराण में इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक अल्लप्रभु तथा उनके शिष्य बासव को माना जाता है
- इस सम्प्रदाय के लोग लिंग तथा नन्दी की पूजा करते थे
- ये लोग ब्राह्मण विरोधी थे
- मूर्ति पूजा एवं पुर्नजन्म में विश्वास नही करते थे
- विधवा विवाह का जहाँ एक तरफ समर्थन करते थे वही दूसरी तरफ बाल विवाह और जाति प्रथा का विरोध करते थे
- ये लोग मृतकों को मिट्टी में दफनाते थे
- वसवना (1131-1196ई) वीर शैव आंदोलन के संत थे यह आंदोलन बाहरवीं शताब्दी के मध्य कर्नाटक में प्रारंभ हुआ था वीर शैव से संबंधित अन्य व्यक्ति – अल्लमा प्रभु, अक्कमहादेवी
Note – कन्नड़ क्षेत्र के सिद्ध (सितर) लिंगायत शाखा के जनक वासव इस सिद्धांत को मानते थे कि पुनर्जन्म नही होता है और जाति अधिक्रम को भी अस्वीकार करते थे
दक्षिण भारत के सिद्ध एकेश्वरवादी थे सिद्ध मूलतः शिव के उपासक थे किंतु मूर्ति पूजा के विरोधी थे
Note – अभिनव गुप्त – कश्मीर के शैव आचार्य थे
कश्मीर में शेख नूरुद्दीन ऋषि ने 1430 ई में ऋषि आंदोलन चलाया था
शैव सन्त लल्ला देवी भी ऋषि आंदोलन की प्रसिद्ध संत थी
लालदेद या लल्लेश्वरी (1320-1392 ई)
- चौहदवीं शताब्दी की भक्ति परम्परा की कवयित्री थी जो कश्मीरी शैव सम्प्रदाय से संबंधित है
शंकराचार्य – भक्ति आंदोलन
- केरल के 10 वी सदी के संत थे
- इन्होंने अद्वेतवाद का मत दिया
- इनके अनुसार ब्रह्म का स्वरूप निर्गुण है
- शंकराचार्य के अनुसार मोक्ष (मुक्ति) मानव जीवन का परम पुरूषार्थ है जो इसे नही प्राप्त कर सकता है वह आत्महा है
- मनुष्य केवल आत्मसाक्षात्कार अर्थात ज्ञान द्वारा ही मुक्ति पा सकता है
- इन्होने कहा – “ आत्मा परमात्मा का अंश है कण कण में ईश्वर विद्यमान है “
- इन्होंने शारीरिक भाष्य ग्रंथ लिखा
- इन्होंने वेदांत दर्शन का प्रचार करने के लिए भारत के 4 कोनो में 4 पीठ स्थापित किए
- ज्योतिष्ठ पीठ – बद्रीनाथ उत्तराखंड – (विष्णु)
- श्रृंगेरी पीठ – श्रृंगेरी कर्नाटक-(शिव)
- गोवर्धन पीठ – पूरी उड़ीसा- (वलभद्रा एवं सुभद्रा )
- शारदा पीठ – द्वारका गुजरात (कृष्ण)
- पिता का नाम – शिवगुरु
- माता का नाम – आर्यम्बा ( सुभद्रा )
- माता की आज्ञा से गृहत्याग किया
- ओर नर्मदा नदी के तट पर गोविंद भागवत पाद से सन्यास की दीक्षा ली
- शंकराचार्य के गुरु – गोविंद
- गोविंद ने शंकराचार्य को परमहंस की उपाधि दी थी
- शंकराचार्य के काल मे दक्षिण भारत मे बौद्ध एवं जैन धर्म का प्रचलन था
- अतः शंकराचार्य ने ब्राह्मण धर्म का प्रचार किया जो कि नव ब्राह्मणवाद के नाम से जाना गया
- शंकराचार्य के द्वारा ब्राह्मण धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए स्मृति सम्प्रदाय की स्थापना की गई
- जिसमे 5 देवताओं की उपासना की बात कही गयी
- शंकराचार्य ने – ब्रह्म को सत्य तथा जगत को मिथ्या माना
- शंकराचार्य ने कहा था कि – अहम ब्रह्मसी ( में ही ब्रह्म हु)
- ये ज्ञान मार्गीय थे
- इन्होंने उपनिषदों पर भाष्य लिखे
- इनके द्वारा निम्न पुस्तकों की रचना की गई
- ब्रह्मसूत्र भाष्य
- गीता भाष्य
- उपदेश साहसी
- शंकराचार्य के द्वारा मायावाद का सिंद्धांत दिया गया
रामानुज – (1017 से 1137 ई)
- जन्म – पेरिपुरम तमिलनाडु
- चोल शासक कुलोतुंग 1 के समय इन्हें श्रीरंगम एव श्रृंगेरी को छोड़कर तिरुपति (आंध्रप्रदेश) आना पड़ा
- इन्होंने ज्ञान के स्थान पर भक्ति को मुक्ति का मार्ग बताया
- इन्होंने उपनिषदों पर श्रीभाष्य लिखा
- इन्होंने राम एवं सीता की युगल रूप से पूजा की थी
- अतः इनके सम्प्रदाय को रसिक सम्प्रदाय अथवा श्रीसम्प्रदाय कहा जाता है
- रामानुज ने यमुनाचार्य के साथ रामानुजी सम्प्रदाय तिरुपति में स्थापित किया
- रामानुजी सम्प्रदाय की राजस्थान में प्रधान पीठ गलता जी जयपुर में स्थित है
- बचपन का नाम – लक्ष्मण
- पिता – केशव
- माता – कान्तिमति
- इन्होंने कांचीपुरम स्थान पर अपने गुरु यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा प्राप्त की थी
- इनको दक्षिण में विष्णु का अवतार कहा जाता है
- इन्होंने विशिष्टाद्वैत मत का प्रतिपादन किया
- इनके अनुसार ब्रह्म, जगत व जीव तीनो ही सत्य है और इन तीनो के मध्य एक विशिष्ट प्रकार का संबंध है
- इन्होंने सगुण भक्ति के माध्यम से राम एवं सीता की आराधना की थी
- इन्होंने शंकराचार्य के अद्वेतवाद का खंडन किया
- इन्होंने वेदांत संग्रह नामक पुस्तक की रचना की थी जिसमे शंकराचार्य के मायावाद के सिद्धांत का विरोध किया था
- इनके द्वारा निम्न पुस्तको की भी रचना की गई
- वेदांत द्वीप
- वेदांत सार
- श्रीभाष्य
- इनके द्वारा श्रीवैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की गयी
निम्बाकाचार्य
- तेलगांना के सन्त थे
- रामानुज के समकालीन थे
- इन्होंने उपनिषदों पर वेदांत परिजात भाष्य ग्रन्थ लिखा
- इन्होंने ईश्वर एव जगत में भेद या अंतर स्वीकार किया तथा इसे जागतिक अवस्था कहा
- परन्तु ईश्वर एव जगत में सर्वोच्च स्थिति में अभेद स्वीकार किया तथा इसे सनक अवस्था कहा
- अतः इस सम्प्रदाय को सनक सम्प्रदाय भी कहते है
- इन्होंने द्वेताद्वेत या भेदाभेद वाद का मत दिया
- इन्होंने राधा को श्रीकृष्ण की अर्धागिनी मानकर राधा कृष्ण की पूजा की थी
- इनकी प्रधान 02 पीठ है
- एक – वृंदावन
- दूसरी – पंढरपुर का राधाकृष्ण मंदिर (महाराष्ट्र)
- राजस्थान में सलेमाबाद (किशनगढ़) में प्रधान पीठ है
- जन्म – 1165 ई निम्बापुर (मद्रास)
- इन्होंने शंकराचार्य के अद्वेतवाद का खंडन किया
- ये सगुण भक्ति के उपासक थे
- इनका मानना था कि कृष्ण की भक्ति से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है
- इन्होने अवतारवाद की अवधारणा पर विश्वास किया
- इन्होंने कृष्ण को शंकर का अवतार माना था
- इनके द्वारा राधा एव कृष्ण की भक्ति पर बल दिया गया इसलिए निम्बकचार्य का सम्प्रदाय सनक या सनकादि सम्प्रदाय के नाम से जाना गया
- इनको सुदर्शन चक्र का अवतार माना गया
मध्वाचार्य
- कर्नाटक के सन्त थे
- यह उडुपी (ऊटी) की नीलगिरी पहाड़ियों पर भक्ति की
- इन्होंने जगत एवं ईश्वर के मध्य एक भेद को स्वीकार माना
- इन्होंने कहा ईश्वर सृष्टा है जो इस जगत या सृष्टि की रचना करता है
- सृष्टि भिन्न एव पृथक है
- ईश्वर और मनुष्य में हमेशा भेद बना रहता है अतः भक्ति तभी सम्भव है जब भक्त एवं भगवान के बीच दूरी हो
- इन्होंने उपनिषदों पर पूर्ण प्रज्ञ भाष्य लिखा
- इन्होने अन्य संतो की शिक्षाओं पर सर्वदर्शन संग्रह ग्रथं लिखा
- इन्होंने लक्ष्मीनारायण सम्प्रदाय की स्थापना की थी जिसे ब्रह्म सम्प्रदाय भी कहा जाता है
- मध्वाचार्य को पूर्ण प्रज्ञ एव आनंद तीर्थ कहते
- अन्य नाम – वायु का अवतार ( मध्वाचार्य उपदेश देते हुए अदृश्य हो गए )
- इन्होंने द्वेतवाद दर्शन को माना
- इनके अनुसार मानव के जीवन मे नैतिकता का सर्वोच्च स्थान होता है
- इन्होंने अंहिसा, सयंम, सादगी व चित की शुद्धता पर बल दिया
- इनके शिष्य का नाम – जयतीर्थ (मध्वाचार्य के उपदेशों का संकलन सूत्रभाष्य के नाम से किया गया
रामानन्द – (15 वी सदी के अंत)
- जन्म – प्रयागराज (इलाहाबाद के कन्नौज में)
- इनके द्वारा भक्ति की दीक्षा लेने के लिए राघवानन्द गुरु के साथ तिरुपति गए
- ओर वही तपस्या की थी
- ये रामानुजी शिष्य परंपरा में 5 वे आचार्य थे
- दक्षिण से रामानंद भक्ति का संदेश उतर भारत लेकर आये
- स्थानीय भाषा अवधि में उपदेश दिए
- इस कारण हिन्दू धर्म सुधार आंदोलन की तेजी से लोकप्रियता मिली
- इन्होंने सभी वर्ण एव जातियों को उपदेश दिया
- परन्तु जाती प्रथा का प्रत्यक्ष रूप से विरोध नही किया
- व्याहारिक रूप से इन्होंने 12 जातियों से 12 शिष्य बनाएं जिनमे प्रमुख – कबीर (जुलाहा), धन्ना (जाट), पीपा (राजपूत), रैदास (चमार), सेना (नाइ), सुगना (कसाई) थे
- यह कहते थे कि “कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति से उसका धर्म, सम्प्रदाय या जाति न पूछे” ओर आगे कहते है -”ईश्वर मनुष्य के गुणों को देखता है उसकी जाती को नही, दूसरे संसार मे कोई जाति नही है”
- रामानन्द ने मध्यकालीन मुस्लिम कट्टरता एवं राजनैतिक दबाब के समय हिन्दू धर्म की रक्षा की थी
- इनका ग्रन्थ श्री वैष्णवमताज भास्कर अवधि भाषा मे रचित ग्रथं है
- रामानन्द वैष्णव संत थे परंतु इन्होंने शैव धर्म के साथ समन्वय किया
- प्रयागराज में शैव एव राम भक्ति के घाट स्थापित करवाये थे
- रामानन्द सगुण उपासक थे परंतु इनके सभी शिष्य निर्गुण उपासक थे
- इनको दक्षिण एवं उत्तर भारत के भक्ति आंदोलनो के मध्य सेतु के रूप में जाना गया
- इनकी मृत्यु के बाद भक्ति आंदोलन में 02 वर्गो का उदय हुआ था
- रूढ़िवादी- इनका नेतृत्व तुलसीदास जी
- सुधारवादी – इनका नेतृत्व कबीरदास जी
- ईनके द्वारा रामावत / श्री सम्प्रदाय की स्थापना की गई थी
- यह पहले ऐसे संत थे जिन्होंने अपने उपदेश हिन्दी भाषा ने दिए
- इनके शिष्य-
- पुरुष – कबीरदास ……
- महिला – पद्मावती, सरसरी
कबीरदास (1398-1510)
- जन्म एव वंश अस्पष्ट है
- नीरू एवं नीमा जुलाहा परिवार को ये शिशु वाराणसी की सीढ़ियों पर मिले
- कबीर गृहस्थ जीवन मे रहे
- इन्होंने भक्ति के लिए गृहस्थ जीवन आवश्यक माना
- मध्यकालीन हिन्दू मुस्लिम कट्टरता का विरोध किया जैसे – मुस्लिम अजान को मूर्खता कहा
- वही मूर्ति पूजा को आडम्बर बताया
- हिन्दू मुस्लिम धार्मिक कट्टरता पर प्रहार कर दोनों के मध्य साम्यता लाने पर बल दिया
- इस तरह कबीर प्रथम संत थे जिन्होंने हिन्दू मुसलमानों में एकता स्थापित की थी
- इन्होंने स्थानीय भाषाओ में शिक्षा दी
- इन्होंने संस्कृत, अरबी, फ़ारसी का विरोध किया
- इनकी कुछ शिक्षाएं गुरु ग्रन्थ साहिब में लिखी हुई
- इन्होंने निर्गुण निराकार ईश्वर की पूजा पर बल दिया
- इनकी मृत्यु के बाद इनके प्रमुख शिष्य धर्मदास ने बीजक ग्रन्थ की रचना की जिसमे कबीर की शिक्षाएं दोनों में संकलित की गई
- तथा दूसरा शिष्य मलूकदास ने कबीरवाणी ग्रन्थ की रचना की
- तीसरे शिष्य भागदास ने कबीर पंथ की स्थापना की थी
- Note – अबकर की धार्मिक नीतियों पर सर्वाधिक प्रभाव कबीर एव गुरुनानक का पड़ा
- कबीर के उपदेश – साखी, सबद, रमैनी में मिलते है
- भक्ति आंदोलन के सभी सन्तो में इन्हें सबसे क्रांतिकारी संत माना गया
- इनकी विचारधारा विशुद्ध अद्वेतवादी थी
- कबीरदास ने स्वामी रामानंद को अपना गुरु बनाया और ईश्वर के निराकार स्वरूप की आराधना में जुलाहे का कार्य करते हुए लगे रहे
- इन्होंने प्रसिद्ध सूफी संत तकी से भी शिक्षा ली थी
- कबीर पढ़े लिखे नही थे किंतु उन्होंने अपनी शिक्षाओ के माध्यम से समाज मे व्याप्त अंधविश्वास, जातपात, मूर्तिपूजा, तीर्थाटन आदि का विरोध किया
- कबीर के राम निर्गुण ब्रह्म थे
- इन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रेम और भक्ति पर जोर दिया अर्थात व्यक्ति प्रेम एव भक्ति के मार्ग पर चलकर ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है
- इनकी मातृभाषा अवधि थी किंतु इनकी शिक्षाओ में कई भाषाओं का मिश्रण होने के कारण इनकी भाषा को सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी भाषा भी कहते थे
दादू दयाल
- 1544 ई में अहमदाबाद गुजरात मे जन्म हुआ
- ये राजस्थान आये
- नरेना जयपुर को अपना तपस्या स्थल बनाया
- दादू ने मूर्ति पूजा, जाती प्रथा की आलोचना की एवं निर्गुण निराकार ईश्वर की पूजा पर बल दिया
- दादू ने मन्दिरो में मूर्ति के स्थान पर गुरु के चित्र रखने पर बल दिया
- इन मंदिरों को अलख दरीबा कहा जाता है
- दादू ने गुरु की अनिवार्यता पर बल दिया
- एवं गुरु की शिक्षा एव गुरूवाणी को संग्रहित करने पर बल दिया
- ये कबीर की शिक्षाओं से प्रभावित थे परंतु कबीर के शिष्य नही थे
- इन्हें राजस्थान का कबीर कहा जाता है
- 1578 ई में अक़बर के इबादत खाने में गए
- अकबर को निर्गुण ईश्वर की शिक्षा से प्रभावित किया
- अकबर की दीन-ए-इलाही की नीतियों में दादू का प्रभाव माना जाता है
- दादूपंथी अपने शव को ना दफनाते, ना जलाते है बल्कि पशु पक्षियों के खाने के लिए छोड़ देते है
- दादूपंथी सत्यराम से अभिवादन किया
- दादूदयाल के 152 शिष्य थे जिनमें प्रमुख 52 थे इन्हें बावन स्तम्भ कहा गया
- दादू ने ढूंढाड़ी भाषा (सदुड़ी) में उपदेश दिए
- दादू ने दादूवाणी एवं दादूदयाल रा दुहा नामक ग्रथं ढूंढाड़ी भाषा मे रचित करवाये
- इन ग्रन्थों में दादू के अलावा कबीर एवं रैदास की भी शिक्षाए लिखित है
- दादू की मृत्यु के बाद इनके पुत्र गरीबदास ने दादू खोल में दादूपंथ की प्रधान पीठ स्थापित की तथा दादू दयाल पर एक ग्रन्थ अर्णब प्रबोध की रचना की
- दादूपंथी 5 भागो में बंटे
- नागा शाखा
- संस्थापक – सुन्दरदास राजपूत थे
- जो कि दौसा के गेटोलाव में पीठ स्थापित की
- रचनाएं – सुंदर श्रृंगार
- सुंदर वाणी
- विरक्त शाखा
- ईस पंथ के लोग बस्तियों से दूर जंगलो में रहते है
- इस पंथ की स्थापना जगतराम ने की
- खालसा
- ये दादूपंथी समूहों में रहते है
- खाकी
- ये जुट या बोरी के वस्र पहनते थे
- रज्जब जी इनके प्रधान गुरु थे जो दादू के प्रमुख शिष्य थे
- स्वयं रज्जब जी आजीवन दूल्हे के वेश में रहे
- उतरादे
- उतरी भारत मे इनका प्रचार हुआ
- इसकी स्थापना – बनवारी दास ने की
- प्रधान पीठ – रतिया हरियाणा
गुरुनानक – 1469-1539
- जन्म – तलवंडी ननकाना साहिब पंजाब पाकिस्तान
- पीता – कालू जी
- माता – तृप्ता देवी
- पत्नी – सुलक्षणी
- पुत्र – श्रीचंद एवं लक्ष्मीचंद
- इन्होंने तीर्थयात्रा की जिनमे काशी, बोधगया, श्रीलंका, काबा, मक्का, मदीना की यात्रा की एवं बताया कि तीर्थयात्रा व्यर्थ है
- इनका शिष्य मरदाना सारंगी बजाता था
- गुरुनानक जी रबाब के साथ काव्य गाया करते थे
- इन्होंने निर्गुण निराकार ईश्वर की पूजा पर बल दिया इसे अकाल पुरूष कहा
- ये अपने अंतिम समय करतारपुर साहिब पाकिस्तान में रहे
- इससे पूर्व इन्होंने भारत अफगानिस्तान ईरान और अरब में धार्मिक उपदेश दिए जिन्हें उदासियां कहते थे
- इन्होंने नारी की स्थिति सुधारने पर बल दिया
- हिन्दू मुस्लिम कट्टरता का विरोध किया
- एवं हिंदू मुस्लिम एकता पर बल दिया
- करतारपुर में इनकी मृत्यु 1539 में हुई
- इनकी समाधि ननकाना साहिब पाकिस्तान में है
- करतारपुर नगर को गुरुनानक ने बसाया था
- इन्हें सिक्ख धर्म का संस्थापक माना जाता एवं सिक्खों के प्रथम गुरु कहा जाता है
- श्रीचन्द ने उदासी सम्प्रदाय की स्थापना की
- गुरुनानक ने 30 वर्ष की आयु में पूरे देश का लगभग 5 बार भ्रमण किया जिसे उदासीसी कहा गया
- इन्होंने अपने उपदेश कविताओं के माध्यम से दिए जिनका संकलन सिक्खों के 5वे गुरु अर्जुनदेव के द्वारा आदिग्रंथ के रूप में किया गया
- इन कविताओं में से एक मुख्य कविता जपजी है जिसमे गुरुनानक जी के आध्यात्मिक विचारो का संग्रह है
- इन्होंने हिंदी, फ़ारसी, संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया
- इनके 02 पुत्र थे – श्रीचंद, लक्ष्मीदास
- श्रीचंद ने उदासी सम्प्रदाय की स्थापना की थी
- गुरुनानक एक दार्शनिक, समाज सुधारक तथा कवि थे
- इन्होंने समकालीन चिश्ती संत फकरुद्दीन-गंज-ए-शक्कर से वार्तालाप किया था
- इन्होंने अपने अनुनायो को एक समुदाय में संगठित किया जिसे ‘सामूहिक स्तर पाठयुक्त सम्वेत्ता आराधना (संगत)’ कहते थे
- इसके लिए नियम बनाया गया तथा सामुहिक पूजा पद्धति को बढ़ावा दिया
- गुरुनानक देव का सर्वाधिक प्रहार जात पात को लेकर था जिसका उन्होंने व्यापक स्तर पर विरोध किया
- यह प्रमुख संत थे जिन्होंने अपने उपदेशों में समाज एवं परिवार के लिए महिलाओं के महत्व के बारे में बताया
- इन्होंने यज्ञ, धार्मिक स्नान, मूर्तिपूजा, कठोर तप आदि का खण्डन किया तथा कहा कि ईश्वर एक है, कोई दूसरा नही है और नानक ईश्वर का दूत सत्य कहता है इस प्रकार ईश्वर के एकत्व की भक्ति द्वारा हिन्दू एव मुस्लिमो दोनों को निकट लाने का प्रयास किया
- इन्होंने लंगर व्यवस्था प्रारंभ किया था
- इन्होंने निराकार ईश्वर की कल्पना की ओर इस ईश्वर को अकाल पुरूष की संज्ञा दी
- गुरुनानक के शिष्य – मरदाना एवं बाला
लहना / अंगद देव (1539-1552)
- गुरुनानक ने लहना को अपना उत्तराधिकारी घोसित किया गया था
- लहना को गुरुनानक द्वारा अंगद नाम दिया गया था
- गुरु अंगद देव सृजनात्मक व्यक्तित्व और आध्यात्मिक क्रियाशील से परिपूर्ण थे जिसके कारण वे सिक्खों के दूसरे महान गुरु बने
- इनका जन्म – 31 मार्च 1504 में पंजाब के फिरोजपुर में हरिके गांव में हुआ
- गुरु अंगद ने गुरुमुखी लिपि प्रारंभ किया था
अमरदास (1552-1574)
- यह वैष्णव सम्प्रदाय के अनुनायी थे
- इनके लंगर में हिन्दू एवं मुस्लिम एक साथ भोजन करते थे
- इन्होंने लेवन नामक विवाह पद्धति प्रारंभ किया
- अकबर इनसे गोइंदवाल में मिला था
- अकबर ने अमरदासजी के पुत्री के नाम कई गाँव प्रदान किये
गुरु रामदास (1574-1581)
- यह सिक्खों के चौथे गुरु थे
- अकबर बहूत प्रभावित था
- 1577 ई में अकबर ने 500 बीघा जमीन गुरु रामदास को दान में दिया
- इसी स्थान पर प्राकृतिक तालाब भी था
- कालान्तर में यही पर अमृतसर नगर बसा ओर स्वर्णमंदिर का निर्माण कराया गया
- गुरु रामदास जी के समय ही से गुरु का पद पैतृक हो गया
गुरु अर्जुनदेव (1581-1606)
- यह सिक्खों के पांचवे गुरु थे
- गुरु अर्जुनदेव ने सूफी मिया मीर द्वारा अमृतसर में हरमंदिर साहब की नींव डलवायी
- कालान्तर में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा हरमंदिर साहब में स्वर्ण जुड़वाने के बाद अंग्रेजो द्वारा पहली बार इसे स्वर्णमंदिर नाम दिया गया
- अमृतसर सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है
- गुरु अर्जुनदेव ने जगह जगह संगतों का प्रचार सिक्ख धर्म हेतु किया
- इंहोने अमृतसर में तरनतारन एवं करतारपुर नगरों की स्थापना की
- इन्होंने पूर्ववर्ती गुरुओं के उपदेशों को संकलित कर ‘आदिग्रंथ’ की रचना की
- इसमे बाबा फरीद, रविदास तथा कबीर के वचनों का संग्रह है
- आदिग्रंथ (गुरुग्रंथ साहिब) को गुरुमुखी लिपि तथा संत भाषा मे लिखा गया
- संत भाषा को उलटबासी रहस्यवादियों की भाषा कहते है
- भक्ति युग के संतों कबीर, गुरु नानक आदि की प्रचार भाषा रही
- गुरु अर्जुनदेव को सच्चा पादशाह भी कहते है
- इन्होंने रामदासपुर में अमृतसर एव संतोष सर नामक तालाब निर्मित करवाये
- अमृतसर तालाब के मध्य में 1589 में हरमंदिर साहब का निर्माण करवाया गया था
- इन्होने नगर निर्माण के लिए अपने अनुनायियों को पैसा वसूलने के लिए भेजा जो मंसद ओर मउरा कहे जाते थे
- इन्होंने अनिवार्य आध्यात्मिक कर लेना शुरू किया तथा अपने शिष्यों से कहा कि अपनी आय का 1/10 भाग गुरु को अर्पित करे
- इनके पहले सिक्ख गुरु धर्मोपदेश थे उन्होंने राजनीति में हस्तक्षेप नही किया परन्तु अर्जुनदेव ने खुसरो को समर्थन किया जिसके कारण जहाँगीर ने 1606 ई में मृत्युदंड दिया
- गुरु अर्जुन देव ने सिक्ख धर्म को शक्तिशाली बनाया
गुरु हरगोविंद (1606-1644)
- यह सिक्खों के छटवे गुरु थे
- इन्होंने अपने समर्थकों से धन के स्थान पर घोड़े ओर हथियार लेने आरम्भ किये
- इन्होंने मांस खाने की आज्ञा दे दी तथा तख़्त अकाल बंगा की नींव डाली और अमृतसर की किलेबंदी की
- इंहोने धार्मिक शिक्षा के साथ साथ अपने शिष्यों को सैनिक शिक्षा भी प्रदान की थी
- जहाँगीर ने उनसे उनके पिता पर किये गए जुर्माने को मांगा परन्तु इन्होंने इंकार कर दिया जिससे उन्हें 2 वर्ष तक ग्वालियर के किले में कैद करके रखा गया
गुरु हरराय (1644-1661)
- यह सिक्खों के 7वे गुरु थे
गुरु हरकिशन (1661-1664)
- यह सिक्खों के 8वे गुरु थे
गुरु तेगबहादुर (1664-1675)
- यह सिक्खों के 9वे गुरु थे
- यह 6वे गुरु हरगोविंद के पुत्र थे
- सिक्खों द्वारा निर्वाचित एक मात्र गुरु थे
- औरंगजेब के धार्मिक विचारों का विरोध किया तथा बन्दाबहादुर को सैन्य प्रमुख नियुक्त किया था
- इन्होंने मखोवाल में अपनी गद्दी स्थापित की
- औरंगजेब इनका शीश काटकर गुरुद्वारा के ऊपर लटका दिया था जिसे शीशगंज गुरुद्वारा (दिल्ली ) कहते है
गुरु गोविंद सिंह (1675-1708)
- ये सिक्खों के अंतिम गुरु थे
- इनका जन्म – पटना में हुआ
- इन्होंने अपनि मृत्यु से पूर्व गुरु की गद्दी को समाप्त कर दिया
- ओर कहा कि ‘गुरूवाणी (आदिग्रन्थ या गुरु ग्रन्थ साहिब) ही सिख सम्प्रदाय के गुरु का कार्य करेगी
- इन्होंने प्रत्येक सिक्ख को अपने नाम के आगे ‘सिंह’ लगाने को कहा
- तथा प्रत्येक सिक्ख को केश, कंघा, कृपाण, कच्छा ओर कड़ा रखने को कहा
- इन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की तथा सैनिको को शक्तिशाली बनाया
- इन्होंने सिक्खों की सैनिक व्यवस्था का गठन खालसा नाम से किया था
- बहादुर शाह प्रथम ने इन्हें 5000 का मनसब दिया था
- 1708 ई में अजीम खान पठान ने नांदेड़ (महाराष्ट्र) में इनकी हत्या कर दी थी
- नांदेड़ में ही इनकी स्मृति में ‘हुजूर साहब गुरुद्वारे (नांदेड़ गुरुद्वारा) का निर्माण किया गया
रैदास (1498-1540)
- यह रामानन्द के प्रमुख शिष्य थे
- गूढ़ एव रहस्यवादी सन्त थे
- स्वयं चमड़े का कार्य करते थे
- इनका जीवन पवित्र एव रहस्यवादी था
- इन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया
- ये निर्गुण निराकार संत थे
- इन्होंने सामाजिक सुधारो पर बल दिया ऊंच नीच की भावना का विरोध किया
- इन्हें कबीर ने संतो का संत की उपाधि दी थी
- इनके 30 से अधिक भजन गुरुग्रंथ साहिब में उत्कीर्ण है
- प्रमुख भजन – मन चंगा तो कठौती में गंगा
- छतरी – चितौड़गढ़ दुर्ग में वर्तमान कुंभश्याम मंदिर में स्थित है इसे मीरा मंदिर ही कहते है
चैतन्य महाप्रभु (1486- 1533)
- जन्म – नदिया (नवद्वीप) बंगाल
- बचपन का नाम – विश्वभर / निमाई
- शिक्षा प्राप्ति के बाद इन्हें चैतन्य कहा जाने लगा
- इन्होंने कृष्ण भक्ति पर बल दिया
- राधा कृष्ण की मूर्ति पूजा पर बल दिया
- इन्होंने किर्तन पर बल दिया
- ये वृंदावन आये पुनः वृंदावन को धार्मिक गौरव प्रदान किया यहाँ अनेक मंदिर बनवाये
- इनका मत औचित्य भेदाभेदवाद था
- इन्होंने ज्ञान के स्थान पर भक्ति पर बल दिया
- इन्हें गौड़ीय सम्प्रदाय का संस्थापक माना है
- श्रीकृष्ण का अवतार माने जाने के कारण इन्हें गौरांग महाप्रभु कहा जाता है
- अंतिम समय ओडिसा के शासक प्रताप रुद्रदेव गजपति के पास गए एवं वही पूरी में इनकी मृत्यु हुई थी
- चैतन्य चरित्रामृत ग्रन्थ श्री कृष्णदास के द्वारा लिखा गया
- उपाधि – गौरांग महाप्रभु, विद्यासागर
- गुरु – केशव भारती
- इन्होंने समाज के निम्न वर्ग को भी अपना शिष्य बनाया जिनमे प्रमुख शिष्य हरीदास था
- हरीदास के द्वारा हरिदासी सम्प्रदाय की स्थापना की गई
- चैतन्य ने गोसाई संघ की स्थापना की
- चैतन्य सगुण भक्ति धारा के संत थे
- चैतन्य का विश्वास था कि मनुष्य प्रेम, भक्ति तथा नृत्य संगीत के द्वारा ईश्वर में लीन हो सकता है
- इस प्रकार नृत्य एवं संगीत उनकी भक्ति का अंग बन गए
- यह कीर्तन के माध्यम से अपने आराध्य की भक्ति में लीन रहते थे जो भक्ति परम्परा की एक नई विशेषता थी
- इसके माध्यम से इन्होंने राधा कृष्ण की भक्ति को लोकप्रिय बना दिया
- इन्हें लोग विष्णु का अवतार मानने लगे कहा जाता है कि चैतन्य के शिष्यों के प्रयास से वृंदावन तीर्थनगरी बन गया था
- इनकी मृत्यु 1534 में पूरी में हुई थी
तुलसीदास जी
- उत्तरप्रदेश के बाँदा जिले के राजपुर गांव में 1533 में जन्म हुआ
- उपनाम – मानस का हंस
- बचपन का नाम – तुलाराम
- गुरु – नरहरिदास
- पत्नी – रत्नावली
- पिता – आत्मा राम
- माता – हुलसी देवी
- इनको रत्ना ने रामभक्ति हेतु प्रेरित किया
- ये अकबर एवं जहाँगीर के समकालीन थे
- परन्तु इनका नाम आइन-ए-अकबरी में नही मिलता है
- 1574-75 में इन्होंने अवधि भाषा मे रामचरित मानस की रचना की थी
- अन्य ग्रन्थ – गीतावली , कवितावली
- दोहावली , विनयपत्रिका, बरवे रामायण, पार्वती मंगलम, रामल्ला नहछू, जानकी मंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली
- सभी ग्रन्थ – अवधि भाषा में लिखे
- इन्होंने मध्यकालीन मुस्लिम धर्म परिवर्तन के दौर में हिन्दू धर्म मे सशक्त भक्ति आंदोलन चलाया
- इनके द्वारा सगुण ईश्वर की भक्ति की गई
- इनको शैव व वैष्णव मत के मध्य एकता स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है
सूरदास जी
- एक अनुमान के अनुसार सूरदास जी का जन्म 1540 में रुनकता गाव मथुरा के पास हुआ
- ये पूर्णान्ध नही थे
- अकबर एवं जहागीर के समकालीन संत थे
- अकबर के दरबारी नही थे फिर भी इनका नाम आइन-ए-अकबरी में उल्लेखित है
- ये वल्लभसंप्रदाय के शिष्य थे
- अतः श्रीकृष्ण के बाल रूप की पूजा करते थे
- इन्होंने वृंदावन में वल्लभाचार्य से इनकी भेंट होती है तथा सूरदास जी मथुरा में इनके शिष्य बन जाते है
- वल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मंदिर में कीर्तन करने का दायित्व सौंपा
- 1583 ई में पारसोली ग्राम (गोवर्धन) में इनकी मृत्यु हो जाती है
- इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ – सूरसागर श्रीकृष्ण के बालरूप पर आधारित है
- साहित्य लहरी, सुरसरावली बृज भाषा मे लिखे
- भ्रमरगीत (इसमे उद्धव एवं गोपियों के बीच वाद विवाद का काव्य रूप में वर्णन है )
- इनको पुष्टिमार्ग का जहाज कहा जाता है
रसखान (1548-1620)
- इनका मूल नाम – सैय्यद इब्राहिम था
- इन्होंने स्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली थी
- इन्होंने अपना निवास स्थान ब्रज क्षेत्र को बनाया था
- यह कृष्ण भक्ति शाखा के कवि थे
- रचनाएँ – प्रेमवाटिका, सुजान रसखान
मलूकदास
- मलूकदास का जन्म – 1574 ई में तत्कालीन कड़ा प्रांत में हुआ था
- उस समय अकबर का शासन काल था
- जबकि इनका महाप्रस्थान औरंगजेब के राज्यकाल में 1682 ई में हुआ
- ये गृहस्थ संत थे
- इनके पिता का नाम सुन्दरदास खत्री था
- इनके द्वारा प्रणीत कई रचनाएँ मिलती है
- इसमे ज्ञानबोध, रत्नखान, ज्ञानपरोक्ष आदि रचनाएँ अवधि एवं ब्रजभाषा में है
- इनका प्रसिद्ध दोहा आज भी लोग कहते हुए मिल जाते है – “अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूक कह गए सबके दाता राम “
वल्लभाचार्य (1479-1531)
- इनके माता पिता तीर्थ यात्रा हेतु महाराष्ट्र से वाराणसी आये
- अतः इनका जन्म – वाराणसी में हुआ
- इनकी शिक्षा – वाराणसी में हुई
- इनकी मृत्यु – वाराणसी में हुई
- इनके पिता – लक्ष्मण भट्ट जी दक्षिण भारत के कंकड़वाद ग्राम के रहने वाले थे
- वल्लभाचार्य विष्णुस्वामी के रुद्रसम्प्रदाय से अत्यधिक प्रभावित थे
- इन्होंने त्रिदंड सन्यास की दीक्षा स्वामी नारायनेंद्र तीर्थ से प्राप्त की
- विजयनगर साम्राज्य में शंकराचार्य के अद्वेतवाद, वेदांत तथा मायावाद का खंडन किया जिससे प्रभावित होकर राजा ने इन्हें ‘जगद्गुरु महाप्रभु श्रीमदाचार्य’ की उपाधि से विभूषित किया
- इनके अनुसार इस प्रेम लक्षण भक्ति और जीव की प्रवृत्ति तभी होती है जब भगवान का अनुग्रह होता है जिसे पोषण या पुष्टि कहते है
- इन्होंने अपने दर्शन का नाम – पुष्टिमार्ग रखा था
- श्रीकृष्ण का यशगान ही पुष्टिमार्ग का प्रमुख उद्देश्य था
- ये वृंदावन आये थे
- श्रीकृष्ण के बाल रूप की पूजा की एवं इसे श्रीनाथजी कहा
- इनका मत शुद्ध अद्वेतवाद है अर्थात ये शुद्ध रूप को पूजा के योग्य मानते थे
- इन्होंने मूर्ति पूजा पर बल दिया
- इन्होंने प्रतिदिन 8 बार पूजा पर बल दिया
- उपनिषदों पर पूर्णमीमांसा भाष्य लिखा
- इन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति के लिए सुबोधनी एवं सिद्धांत रहस्य पुस्तकें श्रीकृष्ण देवराय (विजयनगर) के दरबार मे रहते हुए लिखी
- वल्लभाचार्य ने वृंदावन में श्रीकृष्ण भक्ति को पुनःस्थापित किया
- इनके भक्ति मार्ग को पुष्टिमार्ग कहा जाता है
- इनकी प्रमुख रचनाएं – उत्तरमीमांसा, सुबोधनी टीका, तत्वार्थद्वीप
- इनके पुत्र विट्टलदास जी को अकबर ने गोकुल (उत्तरप्रदेश) की जागीर ओर जैतपुरा (महाराष्ट्र) की जागीर दी
- विट्टलदास ने जैतपुर जागीर में श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाया
ईसे विठोबा मंदिर कहा जाता है
- यह वर्तमान में पंढरपुर महाराष्ट्र में स्थित है
- विट्टलदास जी ने अष्टछाप की कवि समूहों की स्थापना की जिनमे मुख्य 4 संत थे
- कुम्भदास, सूरदास, परमानंद, कृष्णदास
- ये चारो वल्लभाचार्य के शिष्य थे
- अन्य 4 कवि विट्टलदास जी के शिष्य थे
- गोविन्दस्वामी, नंददास, छित स्वामी, चतुर्भुजदास
- वल्लभाचार्य ने रहस्य जीवन पर बल दिया
- वल्लभाचार्य ने प्रायश्चित, आत्मसंताप, भक्ति को मुक्ति का मार्ग बताया
- इनके द्वारा रुद्र सम्प्रदाय की स्थापना की गई
मीरा बाई 1498-1546
- जन्म – कुड़की पाली ननीहाल ने हुआ
- पिता – रतनसिंह राठौड
- माता – खुश्बू कंवर
- दादा – राव दूदा जी (मेड़ता के जागीरदार)
- विवाह – सांगा के पुत्र भोजराज के साथ 1514 ई में हुआ
- भोजराज की खतौली युद्ध 1517 ई में मृत्यु हुई
- मीरा बाई विरक्त हुई
- इन्होंने श्रीकृष्ण को अपना पति मानकर पूजा की
- इन्होंने सखी सम्प्रदाय चलाया
- राणा सांगा ने संत रैदास को चितौड़ बुलाया
- संत रैदास ने मीरा को संन्यास की शिक्षा दी
- चितौड़गढ़ में सन्त रैदास रहे थे
- परन्तु सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ के शासक विक्रमादित्य ने मीरा को मारने के लिए सर्प एवं विष भेजे
- अतः मीरा ने चितौड़गढ़ दुर्ग छोड़ दिया एवं वृंदावन आये
- यहाँ दासी सम्प्रदाय चलाया
- वृंदावन में इनके गुरु जीव गोस्वामी ने इन्हें बृज भाषा ने दीक्षा दी
- मीरा बाई ने रत्ना खाती के द्वारा नरसीजी रो मायरो (नानीबाई रो मायरो) की बृज भाषा मे रचना करी थी
- इन्होंने बृज भाषा मे अनेक भजनों की रचना की थी
- इन्होंने अंतिम समय गुजरात आयी
- द्वारिका में डाकोर स्थित रणछोड़ मंदिर की मूर्ति में समा जाने से इनकी मृत्यु हुई थी
- मीराबाई के राजस्थान ने 03 मंदिर है
- एक तो चितोड़ दुर्ग में
- दूसरा मेड़ता में चारभुजा मंदिर
- आमेर में जगतशिरोमणि मंदिर
- इन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति माधुर्य शैली में की
- मीराबाई की तुलना प्रसिद्ध महिला सूफी सन्त – राबिया से की गई
- मीराबाई के भक्ति गीत पदावली के नाम से जाने गए
- मीराबाई की पुस्तक – रूखमणी मंगल, टिका रा गोविंद , नरसी जी म्हारो, राग गोविंद, राग सोरठ के पद
शंकर देव (1449-1568)
- असम के वैष्णव भक्त सन्त थे
- इन्होंने श्रीकृष्ण की निर्गुण भक्ति पर बल दिया
- तथा मूर्ती पूजा का विरोध किया
- ये अकेले कृष्ण मार्गी वैष्णव संत थे जो मूर्ति के रूप में कृष्ण की पुजा के विरोधी थे
- परन्तु मंदिर निर्माण का समर्थन करते हुए कहा कि मंदिरों में वेद एवं उपनिषद रखे जाने चाहिए
- इन्होंने गृहस्थ आश्रम पर बल दिया
- इन्होंने सर्वोच्च देवता की महिला सहियोगियो (लक्ष्मी, राधा, सीता आदि) को मान्यता प्रदान नही की थी और निष्काम भक्ति पर बल दिया
- एवं एकशरण सम्प्रदाय चलाया
- यह सम्प्रदाय महापुरुषीय सम्प्रदाय से भी जाना गया
- इनके सम्प्रदाय में भागवत पुराण या श्रीमद्भागवत को गुरुद्वारों में ग्रथं साहब की भांति इस सम्प्रदाय के मंदिरों की वेदी पर श्रीद्धा पूर्वक प्रतिष्ठित किया जाता था
- इनको असम का चैतन्य कहा गया
- इन्होंने भक्ति रत्नाकर पुस्तक की रचना की थी
- रचनायें – हरिश्चन्द्र उपाख्यान (मार्केंडेय पुराण के आधार पर )
- रूखमणीहरण (हरिवंश तथा भागवत पुराण की कथा के आधार पर )
- आदिदशम, गुणमाला
- इन्होंने वैष्णव धर्म को कामरुप में लोकप्रिय बनाया
नरसी मेहता – 15वी सदी के सन्त
- जूनागढ़ के शासक थे
- कृष्ण भक्ति में सन्यास लिया तथा राजपाट छोड़ दिया
- गुजराती भाषा मे 1 लाख भजनों का संग्रह सूरत संग्राम लिखा
- इसी सूरत संग्राम में गांधी जी का प्रिय भजन “वैष्णव जन …..”लिखा हुआ है
- एक मान्यता के अनुसार नरसी जी की पुत्री नानीबाई के मायरे में श्रीकृष्ण स्वयं साँवरिया सेठ बनकर आये एवं भात भरा
महाराष्ट्र का भक्ति आंदोलन
- यह 2 भागो में बांटा हुआ है
- वरकरी
- मुख्य केंद्र – पंढरपुर
- विठोबा – कृष्ण
- श्रीकृष्ण भक्त / सौम्य भक्त या भावुक भक्त
- इन्होंने राजकीय संरक्षण स्वीकार नही किया
- प्रमुख सन्त – ज्ञान देव, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ
- भजनों का संग्रह – अभंग कहलाता है
- धरकरी
- यह रामजी के अनुनायी थे
- रामजी की कहानी को कीर्तन पद्धति से भजन किया
- तार्किक एव व्यहाविरिक सन्त थे
- इन्होंने राजकीय संरक्षण स्वीकार किया था
- प्रमुख सन्त – समर्थगुरु रामदास (पुस्तक- दासबोध)
ज्ञानदेव / ज्ञानेश्वर
- इन्हें महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन का संस्थापक कहा जाता है
- इन्होंने गीता पर मराठी भाषा मे टीका – ज्ञानेश्वरी लिखी
- जन्म – 13 वी सदी सतारा में हुआ
- अन्य ग्रन्थ – अमृता अनुभव, चंग देव प्रशस्ति, भावार्थ दीपिका
- ये श्रीकृष्ण के भावुक सन्त थे
- इन्होंने भक्ति को सच्ची शृद्धा का परिणाम बताया
नामदेव – (1270-1350 ई)
- जन्म – छिपा परिवार में हुआ
- प्रारंभ में ये डाकू थे
- श्रीकृष्ण के सौम्य भक्त थे
- इन्होंने गृहस्थ जीवन से सन्यास लिया
- ईश्वर को हरी नाम दिया
- इन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया
- इन्होंने कहा – एक पत्थर की पूजा होती दूसरा पत्थर पैरो तले रौंदा जाता है
- इन्होंने दिल्ली जाकर सूफी संतों को पराजित किया
- अंतिम समय पंजाब में रहे
- यही इनकी मृत्यु हुई
- इनकी शिक्षाएं एव श्रीकृष्ण भजन गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित है
- ये ज्ञानदेव के समकालीन थे
- इनके आराध्य देव पंढरपुर के विठोबा या विट्ठल (विष्णु) थे
- विठोबा या विट्ठल की उपासना को वरकरी सम्प्रदाय के नाम से जाना गया जिसकी स्थापना नामदेव ने की थी
- नामदेव इस्लाम धर्म से अधिक प्रभावित थे
- नामदेव ने हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित करने के लिए दोनों समाज मे प्रचलित धार्मिक क्रियाओ की ओर लोगो का ध्यान आकृष्ट किया
- इन्होंने अभंग की रचना की थी
एकनाथ – (1533-1599 ई)
- जन्म – पैठन औरंगाबाद में हुआ
- यहाँ से पंढरपुर आये
- श्रीकृष्ण भक्ति प्रारंभ की
- इन्होंने गीता पर मराठी में चार श्लोक की टीका लिखी
- इन्होंने ज्ञानदेव की मराठी गीता का विश्वसनीय संस्करण प्रकाशित करवाया
- ये दयालु सन्त थे
- एकबार गोदावरी का जल जो विठोबा मूर्ति पर चढ़ाने ले जा रहे थे वो प्यासे गधे को जल पिलाया
तुकाराम (1608-1650 ई)
- जन्म – देहु गांव पूना महाराष्ट्र में हुआ
- इनको वरकरी सम्प्रदाय का वास्तविक संस्थापक कहते है
- इन्होंने शिवाजी से भेंट लेने से इंकार कर दिया
- इन्होंने संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत एकनाथ के श्रीकृष्ण भजनों पर अभंगों की रचना की
- इन अभंगों में स्वयं तुकाराम के भजन भी शामिल है
- यह शिवाजी के समकालीन थे
- कालक्रम के आधार पर संत तुकाराम को जहाँगीर एव शाहजहाँ के समकालीन रखा जा सकता है
- सन्त तुकाराम का जन्म एक किसान परिवार म हुआ था
- इनके पास कुछ पशु ओर भूसम्पति थी लेकिन एक बड़े दुर्भिक्ष में इन्होंने अपने माता पिता , दो पत्नियों में से एक पत्नी तथा पुत्र के साथ सब कुछ खो दिया
- ये दिवालिया हो गए थे
- तथा अपने जीवन से निराश हो गए
- इनकी दूसरी पत्नी कर्कशा थी
- घर और बाहर दोनों ओर से दुखी होकर तुकाराम ज्ञानेश्वर, नामदेव एवं एकनाथ की रचनाओं के अध्धयन में जुट गए
- तथा भावनाथ एवं भंडारा की पहाड़ियों के निर्जन स्थानों में रहकर ईश्वर का चिन्तन मनन करने लगे
- इन्होंने अभंगों की रचना की जिनमे इनकी शिक्षाएं भी सम्मिलित है
रामदास (1608-1681 ई)
- ये तार्किक एव व्यवहारिक संत थे
- इन्होंने रामभक्ति पर बल दिया
- इन्होंने मुस्लिम कट्टरता का विरोध कर कहा – हिंदुस्तान में हिन्दू पद पादशाही स्थापित होनी चाहिए
- ये शिवाजी के गुरु थे
- शिवाजी को हिन्दू पद पादशाही की प्रेरणा दी
- इनका ग्रन्थ – दासबोध है जिसमे हिंदुत्व की रक्षा का आह्वान किया जाता है
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भक्ति आंदोलन का उदय
भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि
[09/02, 11:35 AM] vire: भक्ति आंदोलन के संस्थापक कौन थे?
भक्ति आंदोलन के कारण क्या थे?
भारत में भक्ति आंदोलन क्या है?
भक्ति आंदोलन का दूसरा नाम क्या है?
[09/02, 11:47 AM] vire: भक्ति आंदोलन क्या है
भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक कौन थे
भक्ति आंदोलन के कारण
भक्ति आंदोलन का उदय
उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का आरंभ किसने किया
भक्ति आंदोलन के प्रभाव का वर्णन कीजिए
भक्ति आंदोलन के उदय के कारण
भक्ति आंदोलन का श्रेय जाता है
भक्ति आंदोलन का महत्व
भक्ति आंदोलन से आप क्या समझते हैं
भक्ति आंदोलन के उदय के सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारण
भक्ति आंदोलन में सूरदास का महत्व
भक्ति आंदोलन का अर्थ
भक्ति आंदोलन का उत्तर भारत में आरंभ किसने किय
भक्ति आंदोलन के कारण बताइए
भक्ति आंदोलन क्या था
भक्ति आंदोलन का समाज पर प्रभाव
भक्ति आंदोलन में महिलाओं की भूमिका
भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य
बंगाल में भक्ति आंदोलन का प्रचार किसने किया
भक्ति आंदोलन में कबीर का योगदान
भक्ति आंदोलन के उदय के कारणों पर प्रकाश डालिए
उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का आरंभ किस संत ने किया
भक्ति आंदोलन के प्रभाव का वर्णन करें
भक्ति आंदोलन के प्रारंभिक प्रतिपादक कौन थे?
भक्ति आंदोलन का उद्भव और विकास
बंगाल में भक्ति आंदोलन का प्रसार किस संत ने किया
भक्ति आंदोलन के कारण एवं प्रभाव लिखिए
बंगाल में भक्ति आंदोलन का प्रसार किसने किया
भक्ति आंदोलन के उदय के कारणों का वर्णन कीजिए
भक्ति आंदोलन के प्रसिद्ध संत वल्लभाचार्य का जन्म छत्तीसगढ़ के किस स्थान में हुआ था
भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत कौन लाया
भक्ति आंदोलन का श्रेय किसे जाता है
भक्ति आंदोलन के कारणों का वर्णन कीजिए
भक्ति एवं सूफी आंदोलन के संतों का योगदान था
भक्ति आंदोलन का प्रभाव
भारत में भक्ति आंदोलन के कारण और स्वरूप पर प्रकाश डालें
भक्ति आंदोलन का क्या अर्थ ह
भक्ति आंदोलन कब शुरू हुआ
भक्ति आंदोलन का अखिल भारतीय स्वरूप
भक्ति आंदोलन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए और समाज पर इसके प्रभाव की विवेचना कीजिए
उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन लाने का श्रेय किसे है
बंगाल में भक्ति आंदोलन का प्रसार किस संत ने किया था
भक्ति आंदोलन की विशेषताओं का वर्णन कीजिए
बंगाल में भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक कौन थे
भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषताएं का वर्णन कीजिए
भक्ति आंदोलन के उदय के क्या कारण थे
महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन का प्रेरणा किसे माना जाता ह
भक्ति आंदोलन के महत्व का उल्लेख कीजिए
भक्ति आंदोलन का